संजय उवाच
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥1-3॥
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्॥1-2।।
भावार्थ : संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखा और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा॥1-2॥
भावार्थ : हे आचार्य! आपके बुद्धिमान्शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए॥1-3॥
संजय जी बोल्या –
अब रण की आई बेळ घड़ी।
दोनी सेना भुज ठोक खड़ी ।
दुर्योधन गुरु कै पास गियो।
गुरु द्रोण सूँ यूँ क्हैतो ही हुयो।
देखो पांडव की सेना नै,
ब्यूहकार खड़ी अर बणी ठणी ।
वूँ द्रुपद राज को राज कुँवर,
थाँकै सामै सेना को धणी ।
यो धृस्टधुम्न चेलो थाँको ।
छै सूरबीर अर रण बाँको । ॥1-2॥ ॥1-3॥

